मुहर्रम मुस्लिमों का प्रमुख त्यौहार है। इसे मुहर्रम अथवा मोहर्रम भी कहते है। इसे एक शहादत का त्यौहार माना जाता है, इसका महत्व इस्लामिक धर्म में बहुत अधिक होता है। इस्लामिक कैलंडर के अनुसार यह साल का पहला महीना होता है। पैग़म्बर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मुहर्रम को मनाया जाता है।
यह कोई त्यौहार नहीं बल्कि मातम का दिन है। इमाम हुसैन अल्लाह के रसूल (मैसेंजर) पैग़म्बर मोहम्मद के नाती थे। मुहर्रम एक महीना है, जिसमें शिया मुस्लिम दस दिन तक इमाम हुसैन की याद में शोक मनाते हैं। इस्लाम की तारीख़ में पूरी दुनिया के मुसलमानों का प्रमुख नेता यानी खलीफ़ा चुनने का रिवाज रहा है। ऐसे में पैग़म्बर मोहम्मद के बाद चार खलीफ़ा चुने गए। लोग आपस में तय करके किसी योग्य व्यक्ति को प्रशासन, सुरक्षा इत्यादि के लिए खलीफ़ा चुनते थे। जिन लोगों ने हज़रत अली को अपना इमाम (धर्मगुरु) और खलीफ़ा चुना, वे शियाने अली यानी शिया कहलाते हैं।
मुहर्रम क्या है?
मोहम्मद साहब के मरने के लगभग 50 वर्ष बाद मक्का से दूर कर्बला के गवर्नर यजीद ने खुद को खलीफ़ा घोषित कर दिया। कर्बला जिसे अब सीरिया के नाम से जाना जाता है। वहाॅं यजीद इस्लाम का शहंशाह बनाना चाहता था। इसके लिए उसने आवाम में खौफ़ फैलाना शुरू किया। साथ ही लोगों को अपना गुलाम बनाने के लिए वह उन पर अत्याचार करने लगा। यजीद पूरे अरब पर कब्ज़ा करना चाहता था। लेकिन यजीद के सामने हज़रत मुहम्मद के वारिस और उनके कुछ साथियों ने अपने घुटने नहीं टेके और जमकर मुकाबला किया।
अपने बीवी बच्चों की सलामती के लिए इमाम हुसैन मदीना से इराक की तरफ़ जा रहे थे, तभी रास्ते में यजीद ने उन पर हमला कर दिया। हुसैन लगभग 72 लोग थे और यजीद के पास 8000 से अधिक सैनिक थे, लेकिन फिर भी इमाम हुसैन और उनके साथियों ने मिलकर यजीद की सैनिक से डटकर सामना किया।
हालांकि वे इस युद्ध में जीत नहीं सके और सभी शहीद हो गए। किसी तरह हुसैन इस लड़ाई में बच गए, लोकिन यह लड़ाई कई दिनों तक चली। आख़िरी दिन हुसैन ने अपने साथियों को कब्र में दफ़न किया। मुहर्रम के दसवें दिन जब हुसैन नमाज़ अदा कर रहे थे, तब यजीद ने धोखे से उन्हें भी मरवा दिया। उस दिन से मुहर्रम को इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।
ताज़िया क्या है?
ताज़िया बाँस की कमाचियों पर रंग-बिरंगे कागज़, पन्नी आदि चिपका कर बनाया हुआ मकबरे के आकार का मंडप (जो मुहर्रम के दिनों में मुसलमान लोग हज़रत हमाम हुसैन की क़ब्र के प्रतीक रूप में बनाते है) के आगे बैठकर मातम करते हैं और मासिये पढ़ते हैं।
ये शिया मुस्लिमों का अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देने का एक तरीका है। मुहर्रम के दस दिनों तक बाँस, लकड़ी का इस्तेमाल कर तरह-तरह से लोग इसे सजाते हैं और ग्यारहवें दिन इन्हें बाहर निकाला जाता है। लोग इन्हें सड़कों पर लेकर पूरे नगर में धूमते हैं सभी इस्लामिक लोग इसमें इकट्ठे होते हैं। इसके बाद इन्हें इमाम हुसैन की क़ब्र बनाकर दफ़नाया जाता है। एक तरीके से 60 हिजरी में शहीद हुए लोगों को एक तरह से यह श्रद्धांजलि दी जाती है।
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